नयी दिल्ली , अक्टूबर 17 -- उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के शीर्ष अदालत के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद इस पर अमल करने के प्रति केंद्र और अधिकांश राज्य सरकारों के 'उदासीन रवैया' पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए शुक्रवार को एक सलाहकार समिति का गठन किया।
न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ ने उन्हें रोज़गार के समान अवसर और समावेशी चिकित्सा देखभाल सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संबंधित आदेश पारित किया।
पीठ ने एक ट्रांसजेंडर महिला की याचिका पर यह पारित किया। अदालत ने याचिकाकर्ता को दो लाख रुपये का मुआवजे का आदेश दिया।
पीठ ने उच्च न्यायालय की दिल्ली उच्च न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति आशा मेनन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। पीठ ने ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता ग्रेस बानू और अकाई पद्मशाली, गौरव मंडल, डॉ. संजय शर्मा, वरिष्ठ अधिवक्ता जयना कोठारी को समिति का सदस्य बनाया है।
पीठ ने 2019 में कानून बनने के बावजूद ट्रांसजेंडरों के साथ हो रहे भेदभाव पर गंभीर चिंता व्यक्त की तथा केंद्र को निर्देश दिया कि वह इस अदालत द्वारा गठित सलाहकार समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के तीन महीने के भीतर "समान अवसर नीति" पर अमल करें।
शीर्ष अदालत के समक्ष दायर याचिका में ट्रांसजेंडर महिला ने आरोप लगाया कि शिक्षिका के रूप में उसकी नियुक्ति उत्तर प्रदेश और गुजरात के निजी स्कूलों हुई थी, लोकिन लिंग पहचान के कारण उन्हें सेवा शर्तों के मुताबिक अवसर नहीं दिया गया।
याचिकाकर्ता ने अदालत से कहा कि उसे उत्तर प्रदेश में नियुक्ति पत्र दिया गया था, लेकिन वह वहाँ केवल छह दिनों के लिए हीं पढ़ा सकीं। इसके बाद उन्हें हटाया दिया गया था।
अदालत के समक्ष महिला ने दावा किया कि गुजरात में भी उसे नियुक्ति पत्र दिया गया था, लेकिन उसे कार्यभार ग्रहण करने की अनुमति नहीं दी गई थी।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम, 2019, ट्रांसजेंडरों की गरिमा, समानता और मुख्यधारा में उनके समावेश को सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया था, क्योंकि उनके खिलाफ पुलिसिंग का इतिहास क्रूर रहा है।
अदालत ने आगे कहा कि दुर्भाग्य से ऐसा प्रतीत होता है कि 2019 अधिनियम और ट्रांसजेंडर व्यक्ति नियम, 2020 को "क्रूरतापूर्वक मृतप्राय कर दिया गया है।"पीठ ने कहा, "इस तरह के रवैये को यथोचित रूप से अनजाने या आकस्मिक नहीं माना जा सकता। यह जानबूझकर किया गया प्रतीत होता है और यह गहरे सामाजिक कलंक और क्रमशः 2019 अधिनियम और 2020 नियमों के प्रावधानों को लागू करने के लिए नौकरशाही इच्छाशक्ति की कमी से उपजा है।"शीर्ष अदालत ने कहा कि उसके समक्ष प्रस्तुत यह मुकदमा (ट्रांसजेंडर महिला) सभी के लिए आँखें खोलने वाला है और देश में ट्रांसजेंडर समुदाय की दुर्दशा पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
पीठ ने कहा कि आठ सितंबर, 2022 के इस अदालत के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद केंद्र सरकार ने अनभिज्ञता का नाटक किया है और कोई कार्रवाई नहीं करने का विकल्प चुना है।
अदालत ने मार्च 2023 में संसद के उच्च सदन में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा दिए गए उत्तर पर गौर किया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को रोज़गार में उचित रूप से समायोजित करने के लिए कोई नीति नहीं है।
पीठ ने कहा, "ऐसा रुख 2019 अधिनियम के अध्याय चार के अधिदेश की घोर अवहेलना है, जो संबंधित सरकार को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की पूर्ण और प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने और समाज में उनके समावेशन के लिए कदम उठाने के लिए बाध्य करता है।"पीठ ने कहा कि 2019 अधिनियम का भविष्य में भी किसी भी तरह का अनुपालन करने से पूरी तरह इनकार करने के साथ-साथ लगातार निष्क्रियता "बेहद परेशान करने वाली" है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि केंद्र ही एकमात्र दोषी नहीं है और राज्यों की ओर से भी गंभीर निष्क्रियता दिखाई देती है।
पीठ ने कहा कि पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और हाल ही में दिल्ली को छोड़कर, किसी अन्य राज्य ने 2020 के नियमों के अनुरूप कोई नियम नहीं बनाया है।
पीठ ने कहा कि ओडिशा और केरल ने व्यापक नीतिगत उपाय किए हैं, लेकिन अन्य राज्यों ने "आरामदायक चुप्पी" साध रखी है।
पीठ ने कहा कि 2020 के नियमों के नियम 11 में राज्य सरकारों को ट्रांसजेंडर संरक्षण प्रकोष्ठ बनाने के लिए अनिवार्य रूप से बाध्य करने के बावजूद, 2020 के नियमों के लागू होने के बाद से केवल 11 राज्यों ने ही ऐसे प्रकोष्ठ बनाए हैं।
गौरतलब है कि ट्रांसजेंडर शब्द का इस्तेमाल उन व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जिनकी पहचान उनके जन्म के समय निर्धारित लिंग से अलग होती है।
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