नयी दिल्ली , नवंबर 26 -- उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को नोएडा के जिला अस्पताल को एक ऐसा स्थाई मेडिकल बोर्ड बनाने का निर्देश दिया है जो यह देखेगा कि क्या एक 32 साल के व्यक्ति के जीवन को बनाए रखने वाली मेडिकल प्रणाली को वापस लिया जा सकता है। यह युवक एक बिल्डिंग से गिरने के बाद 12 साल से 100 प्रतिशत दिव्यांग या वेजिटेटिव स्टेट में है।
यह निर्देश 2018 के उच्चतम न्यायालय के कॉमन कॉज मामले में दिए निर्णय के अनुरूप है जिसने उसने सम्मान के साथ मरने के अधिकार को मान्यता दी थी और निष्क्रिय इच्छामृत्यु या पैसिव यूथेनेशिया के लिए दिशा निर्देशों का ढांचा तैयार किया था।
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने यह आदेश पारित किया, और साथ ही जनवरी 2023 में उच्चतम न्यायालय के जारी संशोधित दिशानिर्देशों पर भी भरोसा किया, जिनका मकसद चिकित्सा निर्देशों और 'जीने की इच्छा' को अधिक व्यवहारिक बनाना है।
अदालत मरीज के पिता की दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी। उन्होंने 2024 में भी निष्क्रिय इच्छामृत्यु की मांग को लेकर अदालत का रुख किया था। उस समय उच्चतम न्यायालय ने अनुरोध अस्वीकार कर दिया था, जिसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने उसके चिकित्सा खर्च वहन करने पर सहमति दी थी।
अब मरीज के पिता ने नयी याचिका दाखिल करते हुए कहा है कि उनके बेटे की स्थिति बिगड़ चुकी है। उनकी अधिवक्ता रश्मि नंदकुमार ने बताया कि मरीज 100 प्रतिशत दिव्यांग है, पीईजी ट्यूब पर निर्भर है, अक्सर बीमार पड़ता है और पिछले दस वर्षों से किसी प्रकार का सुधार नहीं हुआ है।
उन्होंने आग्रह किया कि मामले को कॉमन कॉज़ ढांचे के तहत प्राथमिक चिकित्सा बोर्ड को भेजा जाए। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मांग केवल निष्क्रिय इच्छामृत्यु यानी उपचार को वापस लेने की है, यह कोई सक्रिय हस्तक्षेप नहीं है। न्यायमूर्ति पारदीवाला ने टिप्पणी की कि युवक "अत्यंत दयनीय" और अपरिवर्तनीय स्थिति में है, वह लगातार न्यूनतम चेतना की अवस्था में है और किसी उपचार का जवाब नहीं दे रहा। पीठ ने दर्ज किया कि मरीज क्वाड्रिप्लीजिया और पूर्ण अक्षमता से पीड़ित है, और वर्षों से कृत्रिम सहारे पर जीवित रखा गया है, जबकि सुधार का कोई संकेत नहीं है। क्वाड्रिप्लीजिया बीमारी में गर्दन के नीचे का शरीर पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाता है।
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