भागलपुर, दिसम्बर 26 -- - प्रस्तुति : ओमप्रकाश अम्बुज/देवाशीष गुप्ता कटिहार की मिट्टी में पली ये बेटियां सिर्फ फुटबॉल नहीं खेल रहीं, बल्कि अपने सपनों के लिए हर दिन संघर्ष कर रही हैं। टूटी हुई गेंदों, जर्जर मैदानों और बिना कोच के अभ्यास के बावजूद उनकी आंखों में जीत की चमक जिंदा है। कोई खेतों की मेड़ पर दौड़ती है तो कोई सूखे मैदान में पसीना बहाती है- बस उम्मीद यही कि एक दिन ये मेहनत पहचान बने। ये बेटियां साबित कर रही हैं कि हुनर किसी सुविधा का मोहताज नहीं होता। खासकर आदिवासी समाज की खिलाड़ी, जिनकी फुर्ती और जज़्बा असाधारण है, हर किक के साथ अपनी जगह बना रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब व्यवस्था की नज़र इनकी प्रतिबद्धता पर पड़ती है तो क्या उसे कुछ नजर आता भी है? ये बेटियां खेल के साथ-साथ सिस्टम की उदासीनता से भी लड़ रही हैं, और यही लड़ाई इन्हें...